शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

यू पी ए बनाम एन डी ए : केद्रीय कप २००८

मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ, और जानता हूँ की पैसे कि क्या कीमत होती है. वर्तमान में देश घोर महंगाई के दौर से गुज़र रहा है. इस मंहगाई ने सभी कि कमर तोड़ कर रख दी है. यदि इन हालातों में केन्द्र सरकार गिर जाती और देश के ऊपर समयपूर्व चुनाओं थोप दिए जाते, तो देश को और कितनी महंगाई झेलनी पड़ती इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है. मंहगाई की मार से तड़प रहे भारतीयों ने यही कामना की होगी कि सरकार बच जाए ताकि देश में और मंहगाई न बढे. उन सभी के आशानुरूप, मनमोहन सिंह सरकार बच गई।

परन्तु फ़िर भी पता नहीं क्यूँ मुझे और ज्यादातर भारतीयों को बिल्कुल खुशी नहीं हुई? क्यों नहीं मुझे लगता की देश का भला हुआ है सरकार के बच जाने और समयपूर्व चुनाओं के न होने पर? शायद इसलिए की अभी बीते दिनों विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मन्दिर में अर्थार्त संसद भवन में जो कुछ भी हुआ वह बहुत दुखदायी था और उसको देखकर मेरा मन अन्दर से बहुत दुखी है। दुखी मैं इसलिए भी हूँ क्योंकि मैं यह सोच-सोच कर डर रहा हूँ की यदि छः माह के अल्पकाल की सरकार को गिराने व बचाने हेतु जो तरीके अपनाए गए हैं, यदि भविष्य में पाँच साल की सरकार को बनाने के लिए किया जायेगा तो देश का क्या होगा? कहा जा रहा है की केन्द्र की सरकार को गिराने व बनाने के खेल में कुछ ही दिनों के भीतर कई सौ करोड़ों का खर्चा कर दिया गया. मुझे या किसी को भी इसमें कोई शक भी नहीं होगा क्योंकि सत्ता लोभी राजनेता कुछ भी कर सकते हैं. परन्तु फ़िर भी सोचने वाली बात है, कई सौ करोड़ सिर्फ़ छः महीने के कार्यकाल के लिए खर्च कर दिए गए! क्या हमारे राजनेताओं को ज़रा भी दर्द महसूस नहीं होता इतने पैसा बरबाद करने में? राजनेता जनता का पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं. हमसे तो पानी भी इतनी बेदर्दी से नहीं बहाया जाता. हमें तो पानी बचाने के लिए विज्ञापनों के जरिये अनुरोध किया जाता है, इन राजनेताओं के लिए कब ऐसे विज्ञापन आयेंगे जो इनसे अनुरोध करेंगे की पैसा देश में वैसे ही बहुत कम है अतः उसको ऐसे न बहायें।
मुझे कई बार लगता है राजनेताओं में संवेदनशीलता कहीं मर तो नहीं गई है? ऐसा इसलिए कि यदि सरकार थोडी भी संवेदनशील होती तो वह कह सकती थी, कि यदि इतने अधिक जनता के पैसे बर्बाद हो रहे हैं तो हमें ऐसी सरकार नहीं बचानी? क्या विपक्ष इतना संवेदनशील नहीं हो सकता था कि जिस सरकार को वह साड़े चार साल से देख रहा था उसको वह अपना कार्यकाल पूरा कर लेने देता, और छः महीने बाद चुनाओ होने ही थे, तब जनता कि दरबार में जाकर उनसे सरकार बना सकने के लिए पर्याप्त संख्या मांगने कि गुहार करता? बीते सप्ताह हमने हमारे क्षेत्र के सांसदों को फलों व सब्जियों कि तरह बिकते हुए मंडियों में देखा, साथ ही साथ कुछ नेताओं की नीलामी होते हुए भी देखा. जिसने ज्यादा भाव दिया वह उसके साथ हो लिए. मात्र उम्मीदवारी व पैसे की भूख नें हमारे सांसदों को अपने ज़मीर का भी सौदा करने में हिचकिचाहट महसूस होने नहीं दी. इस मौकापरस्ती की राजनीति के चलते आजकल ज़्यादातर राजनेताओं नें अपनी विचारधारा को कुचल कर रख दिया है. अब से कुछ दशक पूर्व तक राजनेता अपनी विचारधारा से मेल खाते हुए राजनैतिक दल के साथ पूरी कर्मठता से जुड़ते थे, और विपरीत विचारधारा वाले दलों का भरपूर विरोध करते थे. परन्तु आजकल हालत बिल्कुल बदल गए हैं. आज विचारधारा से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है पैसा और उम्मीदवारी. आजकल की राजनीति में इस बात का ही ध्यान रखा जाता है कि उसका ( राजनेता का ) सबसे ज़्यादा फायदा किसमें है. अब यदि इन नेताओं को हम देश चलाने कि पूरी आज़ादी दे देंगे तो यह देश को और कहाँ पहुंचा देंगे, यही सोच कर मैं डर जाता हूँ. अतः समस्त भारतीयों से एक ही अपील है कि अपने व्यस्ततम जीवन से कुछ समय निकाल कर बीच-बीच में सरकार व राजनेताओं के कार्यों का अवलोकन करते रहे.जय भारत. भारतीय दर्पण टीम.

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